{"title":"आधुनिक तन्त्र चित्रकला में प्रयुक्त प्रतीकों का कलात्मक अध्ययन","authors":"Sakshi Gupta","doi":"10.29121/shodhkosh.v4.i2se.2023.564","DOIUrl":null,"url":null,"abstract":"भारतीय कला में धार्मिक तथा दार्शनिक मान्यताओं की अभिव्यक्ति आरम्भ से ही की गई है। मानव आदि काल से ही प्रकृति व ब्रह्माण्ड गूढ़ रहस्यों को जानने के लिये निरन्तर प्रयासरत रहा है। जिसमें समाहित तान्त्रिक अनुष्ठानों व क्रिया-कलापों को अपनी कला का विषय बनाया।\nकलाकार कुछ नवीन सृजन के लिये सदैव प्रयासरत रहा है, जिसके फलस्वरूप कला जगत में नित-नवीन विधाओं का उद्भव होता गया। लगभग सन् 1950-1960 में कलाकारों ने पाश्चात्य शैली की अर्मूतता के साथ दार्शनिक मनोभावों को मिश्रित कर नवीन दृष्टिकोण से कलाकृतियाँ बनानी प्रारम्भ कीं, जिसे उन कलाकारों ने नव-तान्त्रिकवाद नाम दिया। इन कलाकृतियों में आकार अर्मूत थे, परन्तु उनका निर्माण उद्देश्य दार्शनिक था। ये तंत्र विषयक कृतियाँ अत्यधिक प्रभावशाली, आकर्षक व गूढ़तम रहस्यों से परिपूर्ण हैं। कला प्रतीकों की भाषा अमूर्त होते हुये भी आध्ययत्मिक गूढ़तम रहस्यों को उद्घाटित करती है। है। इन कलाकृतियों के निर्माण के लिये कलाकारों ने तान्त्रिक प्रतीकों, ज्यामितीय आकृतियों व वर्णाक्षरों आदि का प्रयोग किया। तंत्र कला में इन प्रतीकों प्रयोग का कलात्मक व विश्लेषणात्मक पक्ष प्रस्तुत होता है।\nआधुनिक भारतीय कला में तन्त्र कला का विकास गुलाम रसूल संतोष, के. सी. एस. पणिकर, सैयद हैदर रज़ा, बिरेन डे, निरोद मजूमदार, मकबूल फ़िदा हुसैन, सतीष गुजराल, पी. टी. रेड्डी, दीपक बैनर्जी, शोभा ब्रूटा, प्रभाकर कोल्टे आदि कलाकारों के सार्थक प्रयास से हुआ।\nअपने इस शोधपत्र में मैं आधुनिक तन्त्र चित्रकारों की कृतियों में प्रयुक्त ज्यामितिय प्रतीकों का कलात्मक अध्ययन प्रस्तुत करूंगी।","PeriodicalId":425253,"journal":{"name":"ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts","volume":"33 18","pages":""},"PeriodicalIF":0.0000,"publicationDate":"2023-12-20","publicationTypes":"Journal Article","fieldsOfStudy":null,"isOpenAccess":false,"openAccessPdf":"","citationCount":"0","resultStr":"{\"title\":\"आधुनिक तन्त्र चित्रकला में प्रयुक्त प्रतीकों का कलात्मक अध्ययन\",\"authors\":\"Sakshi Gupta\",\"doi\":\"10.29121/shodhkosh.v4.i2se.2023.564\",\"DOIUrl\":null,\"url\":null,\"abstract\":\"भारतीय कला में धार्मिक तथा दार्शनिक मान्यताओं की अभिव्यक्ति आरम्भ से ही की गई है। मानव आदि काल से ही प्रकृति व ब्रह्माण्ड गूढ़ रहस्यों को जानने के लिये निरन्तर प्रयासरत रहा है। जिसमें समाहित तान्त्रिक अनुष्ठानों व क्रिया-कलापों को अपनी कला का विषय बनाया।\\nकलाकार कुछ नवीन सृजन के लिये सदैव प्रयासरत रहा है, जिसके फलस्वरूप कला जगत में नित-नवीन विधाओं का उद्भव होता गया। लगभग सन् 1950-1960 में कलाकारों ने पाश्चात्य शैली की अर्मूतता के साथ दार्शनिक मनोभावों को मिश्रित कर नवीन दृष्टिकोण से कलाकृतियाँ बनानी प्रारम्भ कीं, जिसे उन कलाकारों ने नव-तान्त्रिकवाद नाम दिया। इन कलाकृतियों में आकार अर्मूत थे, परन्तु उनका निर्माण उद्देश्य दार्शनिक था। ये तंत्र विषयक कृतियाँ अत्यधिक प्रभावशाली, आकर्षक व गूढ़तम रहस्यों से परिपूर्ण हैं। कला प्रतीकों की भाषा अमूर्त होते हुये भी आध्ययत्मिक गूढ़तम रहस्यों को उद्घाटित करती है। है। इन कलाकृतियों के निर्माण के लिये कलाकारों ने तान्त्रिक प्रतीकों, ज्यामितीय आकृतियों व वर्णाक्षरों आदि का प्रयोग किया। तंत्र कला में इन प्रतीकों प्रयोग का कलात्मक व विश्लेषणात्मक पक्ष प्रस्तुत होता है।\\nआधुनिक भारतीय कला में तन्त्र कला का विकास गुलाम रसूल संतोष, के. सी. एस. पणिकर, सैयद हैदर रज़ा, बिरेन डे, निरोद मजूमदार, मकबूल फ़िदा हुसैन, सतीष गुजराल, पी. टी. रेड्डी, दीपक बैनर्जी, शोभा ब्रूटा, प्रभाकर कोल्टे आदि कलाकारों के सार्थक प्रयास से हुआ।\\nअपने इस शोधपत्र में मैं आधुनिक तन्त्र चित्रकारों की कृतियों में प्रयुक्त ज्यामितिय प्रतीकों का कलात्मक अध्ययन प्रस्तुत करूंगी।\",\"PeriodicalId\":425253,\"journal\":{\"name\":\"ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts\",\"volume\":\"33 18\",\"pages\":\"\"},\"PeriodicalIF\":0.0000,\"publicationDate\":\"2023-12-20\",\"publicationTypes\":\"Journal Article\",\"fieldsOfStudy\":null,\"isOpenAccess\":false,\"openAccessPdf\":\"\",\"citationCount\":\"0\",\"resultStr\":null,\"platform\":\"Semanticscholar\",\"paperid\":null,\"PeriodicalName\":\"ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts\",\"FirstCategoryId\":\"1085\",\"ListUrlMain\":\"https://doi.org/10.29121/shodhkosh.v4.i2se.2023.564\",\"RegionNum\":0,\"RegionCategory\":null,\"ArticlePicture\":[],\"TitleCN\":null,\"AbstractTextCN\":null,\"PMCID\":null,\"EPubDate\":\"\",\"PubModel\":\"\",\"JCR\":\"\",\"JCRName\":\"\",\"Score\":null,\"Total\":0}","platform":"Semanticscholar","paperid":null,"PeriodicalName":"ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts","FirstCategoryId":"1085","ListUrlMain":"https://doi.org/10.29121/shodhkosh.v4.i2se.2023.564","RegionNum":0,"RegionCategory":null,"ArticlePicture":[],"TitleCN":null,"AbstractTextCN":null,"PMCID":null,"EPubDate":"","PubModel":"","JCR":"","JCRName":"","Score":null,"Total":0}
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摘要
भारतीय कला में धार्मिक तथा दार्शनिक मान्यताओं कीि अभव्यक्ति आरम्भ से ही की गई है। मानव आदि कला से ही प्रकृति वब्रह्माण्ड गूढ़ रहस्यो ंको जानेकेलिये निरन्तर प्रयासरत रहा है। जिसमें समाहित तान्त्रिक अनुष्ठानों व क्रिया-कलापों को अपनीकला का विषय बनाया।कलाकार कुछ नवीन सृजन के लिये सदैव प्रयासरतर हा है、जिसके फलस्वरूप कला जगत में नित-नवीन विधाओं का उद्भव होता गया।लगभग सन् 1950-1960 मे कलाकारों ने पाश्चात्य शैली की अर्मूतता के साथ दार्शनिक मनोभावो को मिश्रित कर नवीन दृष्टिकोण से कलाकृतियाँ बनानी प्रारम्भ कीं、जिसे उन कलाकारों ने नव-तान्त्रिकवाद नाम दिया। इन कलाकृतियों में आकार अर्मूत थे, परन्तु उनका निर्माण उद्देश्य दार्शनिक था। ये तंत्र विषयक कृतियाँ अत्यधिक प्रभावशाली,आकर्षक व गूढ़तम रहस्यों से परिपूर्ण हैं। कला प्रतीकों की भाषा अमूर्त होते हुये भी आध्ययत्मिक गूढ़तम रहस्यों को उद्घाटित करती है। है। इन कलाकृतियों के निर्माण के लिये कलाकारों ने तान्त्रिक प्रतीकों,ज्यामितीय आकृतियों व वर्णाक्षरों आदि का प्रयोग किया। तंत्र कला में इन प्रतीकों प्रयोग का कलात्मक व विश्लेषणात्मक पक्ष प्रस्तुत होता है।आधुनिक भारतीय कला में तन्त्र कला का विकास गुलाम रसूल संतोष, के.सी.पएस.पणिकर, सैयद हैदर रज़ा, बिरेन डे, निरोद मजूमदार, मकबूल फ़िदा हुसैन, सतीष गुजराल, पीीद.टी.रेड्डी, दीपक बैनर्जी, शोभा ब्रूटा、प्रभाकर कोल्टे आदि कलाकारों के सार्थक प्रयास से हुआ।अपने इस शोधपत्र में मैं आधुनिक तन्त्र चित्रकारों की कृतियों में प्रयुक्त ज्यामितिय प्रतीकों का कलात्मक अध्ययन प्रस्तुत करूंगी।
आधुनिक तन्त्र चित्रकला में प्रयुक्त प्रतीकों का कलात्मक अध्ययन
भारतीय कला में धार्मिक तथा दार्शनिक मान्यताओं की अभिव्यक्ति आरम्भ से ही की गई है। मानव आदि काल से ही प्रकृति व ब्रह्माण्ड गूढ़ रहस्यों को जानने के लिये निरन्तर प्रयासरत रहा है। जिसमें समाहित तान्त्रिक अनुष्ठानों व क्रिया-कलापों को अपनी कला का विषय बनाया।
कलाकार कुछ नवीन सृजन के लिये सदैव प्रयासरत रहा है, जिसके फलस्वरूप कला जगत में नित-नवीन विधाओं का उद्भव होता गया। लगभग सन् 1950-1960 में कलाकारों ने पाश्चात्य शैली की अर्मूतता के साथ दार्शनिक मनोभावों को मिश्रित कर नवीन दृष्टिकोण से कलाकृतियाँ बनानी प्रारम्भ कीं, जिसे उन कलाकारों ने नव-तान्त्रिकवाद नाम दिया। इन कलाकृतियों में आकार अर्मूत थे, परन्तु उनका निर्माण उद्देश्य दार्शनिक था। ये तंत्र विषयक कृतियाँ अत्यधिक प्रभावशाली, आकर्षक व गूढ़तम रहस्यों से परिपूर्ण हैं। कला प्रतीकों की भाषा अमूर्त होते हुये भी आध्ययत्मिक गूढ़तम रहस्यों को उद्घाटित करती है। है। इन कलाकृतियों के निर्माण के लिये कलाकारों ने तान्त्रिक प्रतीकों, ज्यामितीय आकृतियों व वर्णाक्षरों आदि का प्रयोग किया। तंत्र कला में इन प्रतीकों प्रयोग का कलात्मक व विश्लेषणात्मक पक्ष प्रस्तुत होता है।
आधुनिक भारतीय कला में तन्त्र कला का विकास गुलाम रसूल संतोष, के. सी. एस. पणिकर, सैयद हैदर रज़ा, बिरेन डे, निरोद मजूमदार, मकबूल फ़िदा हुसैन, सतीष गुजराल, पी. टी. रेड्डी, दीपक बैनर्जी, शोभा ब्रूटा, प्रभाकर कोल्टे आदि कलाकारों के सार्थक प्रयास से हुआ।
अपने इस शोधपत्र में मैं आधुनिक तन्त्र चित्रकारों की कृतियों में प्रयुक्त ज्यामितिय प्रतीकों का कलात्मक अध्ययन प्रस्तुत करूंगी।